कॉर्पोरेट बुफे का आखिरी दौर
दशकों तक, खाने-पीने की दुनिया के दिग्गजों का एक ही सिद्धांत था, जो कुछ भी डिब्बे, कैन या पैकेट में आता है, उसे खरीद लो। उनकी रणनीति एक विशाल कॉर्पोरेट साम्राज्य बनाने की थी, जिसमें सूप से लेकर स्नैक्स तक सब कुछ शामिल हो। सोच यह थी कि आकार ही ताकत है। लेकिन मुझे यह हमेशा एक किले से ज़्यादा एक कबाड़ से भरे अटारी जैसा लगा, जहाँ भूली-बिसरी कीमती चीज़ों और बेकार कबाड़ का ढेर धूल फाँक रहा हो। अब ऐसा लगता है कि आख़िरकार इन कंपनियों के बॉस उस अटारी की सफ़ाई करने का मन बना चुके हैं।
बाज़ार, आप देखिए, अब इन कॉर्पोरेट खिचड़ी से थक चुका है। निवेशक अब इन पर एक तथाकथित "कॉन्गलोमरेट डिस्काउंट" लगा रहे हैं। यह कहने का एक सभ्य तरीका है कि जो कंपनी हर फ़न में माहिर होने की कोशिश करती है, वह असल में किसी भी फ़न में माहिर नहीं होती। जब एक ही कारोबार एक पुराने टिन वाले मीट ब्रांड और एक नए ज़माने के प्लांट-बेस्ड स्नैक्स, दोनों को संभालने की कोशिश करता है, तो किसी को भी वह तवज्जो नहीं मिल पाती जिसका वह हक़दार है। नतीजा यह होता है कि पूरा कारोबार अपने अलग-अलग हिस्सों के कुल मूल्य से भी कम का रह जाता है। यह कोई हवाई सिद्धांत नहीं है। इतिहास के सबसे बड़े विलय से बनी कंपनी क्राफ्ट हेंज को ही देख लीजिए। ख़बर है कि वह अब एक बड़े हिस्से को अलग करने पर विचार कर रही है। यह कॉर्पोरेट जगत में यह स्वीकार करने जैसा है कि उनकी भव्य योजना उतनी सफल नहीं हुई।